سار الحسين تاركا امّ القرى |
|
|
ينحوا
العراق بميامين الورى |
وقد اءتى بسيره منازلا |
|
|
حصبائها قد فاخرت شهب السّما |
فالمنزل الاوّل بستان ابن عا |
|
|
مر و
للتّنعيم مسرعا اتى |
و مرّ بالصّفّاح بالاهل وبا |
|
|
لصّحب
و يتبع الخطى اثرا الحظى |
ثمّ الى وادى العقيق بعدها |
|
|
وافى
و ذات عرق هصبها علا |
و غمرة مرّ بها و مسلح |
|
|
ثمّ
افيعيّة فيها ما ونى |
و بعدها جاء لمعدن الّذى |
|
|
لصّحب
و يتبع الخطى اثرا الحظى |
تحفّه كانّهم اسدا الثّرى |
|
|
قيل
الى بنى سليم ينتمى |
و واصل السّير بركبه الى |
|
|
ماء
السّليلّة و حاديه حدى |
و راح بالمسرى مجذّا قاصدا |
|
|
مغيثة
فالنّقرة ثمّ الفضا |
والحاجر المـعـروف مـنه سيّر |
|
|
الرّسول قيسا ذاك رائد الهدى |
و سار قاصدا سميراء و من |
|
|
ثمّ
اءتى توز و فيد ما عدى |
و حلّ بالاجفر و هو منزل |
|
|
تنزله
طىّ لوافر الكلا |
و للخزيميّه لمّا ان اتى |
|
|
يوما
و ليلة عن المسرى ونى |
و حدّثته زينب بما وعت |
|
|
من
هائف لمّا نعى عند الدّجى |
و بعدها وافى زرود و بها |
|
|
وافاه
ناعى مسلم ينعى الحجى |
تنفّس الحسين ثمّ الصعدا |
|
|
و
دمعه على ابن عمّه همى |
ثمّ اتى للثّعلبيّة الّتى |
|
|
بطان
بعدها و من ثمّ سرى |
حيث السّقوق و بها لاقى الّذى |
|
|
حدّثه
بما بكوفان جرى |
حتّى اتى زبالة حطّ السّرى |
|
|
و
جائه الكوفى فى جنح الدّجى |
نعى له ابن يقطر رسوله |
|
|
فياله
على الحسين من نباء |
و راح للقاع يوالى سيره |
|
|
و
بعده الى العقبة انتحى |
و ثـمّ قـد نحّب بالسّير الى |
|
|
واقـصة يطوى السّهول و الرّبى |
ثمّ الى القرعاء وافى و الى |
|
|
مغيثة
غوث الورى حثّ السّرى |
و مذ اتى الشّراف فى طريقة |
|
|
و حطّ
ظعن المجد فى تلك الفلا |
قال اءيا احبّتى تزوّدوا |
|
|
من
مائد و اكثروا من الرّوى |
ثمّ سرى و صحبه فى اثره |
|
|
بشرى
اذا هم باءسنّة القنا |
فمال بالرّكب الى ذى حسم |
|
|
و
جائه الحرّ فكان الملتقى |
قابلهم بخلقه السّامى كما |
|
|
سقاهم
من غبّ ذلك الظّما |
و عندها اسمعهم خطابه |
|
|
و
اعلم الحرّ بما به اتى |
اجابه الحرّ بلطف و غدى |
|
|
كالعبد من مولاه يطلب الرّضا |
صلى الحسين الظّهر فاتمّ به |
|
|
الجيشان و الحرّ بمولاه اقتدى |
و حين بالبيّضة حلّ و غدا |
|
|
يخطب
بالجمع و كلّهم صغى |
فعندها نادوا جميعا انّنا |
|
|
تكون
يوم الملتقى لك الفدا |
انت ابن بنت المصطفى و خير من |
|
|
طاف
ببيت الله و طوعا و سعى |
و خامس الاشباه من قد وجبت |
|
|
طاعته
بامر جبّار السّماء |
مـزّوا جمـيعـا بالعـذيب و الرّدى |
|
|
للّه
يطوف بالخـامـس مـن آل العبا |
ثمّ سرى و الحرّ يسرى جانبا |
|
|
واتّفق الكلّ على هذا السرى |
و صوت حاديه يدوى فـى الفـضا |
|
|
و
الكلّ للحادى و للرّجر صغى |
يا ناقتى لا تذعرى بل شمّرى |
|
|
للسّير فى ركب شقيق المجتبى |
هذا الامام بن الامام من به |
|
|
استقام هذا الدّين و الشّرك انمحى |
يا مالك النّفع و للضّرّ معا |
|
|
ايد
حسين السّبط خيره الملا |
و اخذل يزيد الجور و العهر الّذى |
|
|
اولده
الشرك و غذاه الخنا |
و مـرّ بالاقـساس لم يقـل بها |
|
|
و كان
جل القسّ منه للرّدى |
و مـذ اتـى عـين الرّهيمـة التـقـى |
|
|
بالرّجل الكوفىّ فى راءد الضّحى |
حتى اتى قصر بنى مقاتل |
|
|
رآبه
الجعفى ضاربا خبا |
ناشده الحسين امرا فابى |
|
|
و
الفتح مع سبط النّبىّ ما هوى |
و لم يفارقه الرّياحىّ الى |
|
|
ان
وقف الطّرف بسبط المصطفى |
فـضيّق الحرّ عـليه قـائلا |
|
|
حطّ
عـصى التّرحال يابن المرتضى |
فـقـال و رعـنا ان نسير غـلوة |
|
|
فقال
لا تنزل الاّ بالعرا |
فـسئل الحسين مـا اسم هذه ال |
|
|
ارض
فقال القوم تدعى نينوى |
اءغير ذا اسم لها قالوا بلى |
|
|
العقر
فاستعوذ من كلّ بلا |
قـال اجل فهل تسمّى غير ذا |
|
|
قالوا
بلى هذى تسمّى كربلا |
و ههنا تشبّ نيران الوغى |
|
|
و
ههنا اءحبّتى تلقى الرّدى |
قال انزلوا هنا ارى مجدّلا |
|
|
و
هيهنا ينهب رحلى و الخبا |
هم المغاوير اذا حمّ القضا |
|
|
هم
المصاليت اذا اشتدّ الوغى |
ضمنا از برادر ارجمند و بسيار عزيزمان فاضل و اديب گرانمايه حجة
الاسلام جناب آقاى عليرضا رازينى كه اين قصيده را بنظم فارسى سليس و
زيبا در آورده و ما را از ترجمه بى نياز فرمودند صميمانه تشكر مى كنيم
:
چون حسين از مكه با صد اشتياق |
|
|
شد
روان با دوستان سوى عراق |
برگذشت آن سرور از هر رهگذر |
|
|
سنگ
راهش شد بر انجم مفتخر |
بوستان ابن عامر در رهش |
|
|
افتخار اولين منزلگهش
|
رشته جمله علايق را گسست |
|
|
بند
احرام خود از تنعيم بست |
همـچـنان ياران به دنبالش روان |
|
|
كرد
منزل در صفحاح آن كاروان |
بعد از آن با خون دل با سوز و آه |
|
|
گشت
وادى عقيقش جايگاه |
ذات عـرقـش با جبال سربلند |
|
|
گشت
منزلگاه بر آن ارجمند |
غـمـره و مـسلح افـيعـه ( افـيعـيه ) هر سه را |
|
|
بى
توقف كرد پشت سر رها |
معدنى با نام ابناء سليم |
|
|
گشت
منزلگاه آن وفد كريم |
بر عُمَق بگذشت آن سالار دين |
|
|
جمله
ياران به گردش چون نگين |
آمدند آن ساقيان سلسبيل |
|
|
تشنگان دجله بر ماء التسليل |
منزل بعدى مغيثه نام داشت |
|
|
بعد
از آنجا پاى در نقره گذاشت |
قيس پيك رهبران راه هدى |
|
|
گشت
در حاجر ز همراهان جدا |
در سُمـيراء برگـزيد آنكه مـكان |
|
|
سوى
تـوز و فـيد ز آنجا شد روان |
راه ياران تا به اجْفَر گشت طى |
|
|
سرزمين سبز و منزلگاه طى |
در خزيميه چو آن سرور رسيد |
|
|
يكشب
و يك روز آنجا رميد |
مرگشان را زينب از هاتف شنفت |
|
|
ماجرا
را با برادر باز گفت |
در مكان ديگرى نامش زرود |
|
|
كاروان كربلا آمد فرود |
چـون امـام حق بدان مـنزل رسيد |
|
|
مـاجراى قتل مسلم را شنيد |
دود آهش شعـله زد تـا آسمـان |
|
|
سيل
اشك از ديدگانش شد روان |
ثعلبيه بود و بعد از آن بطان |
|
|
جايگاه آن شتابان كاروان |
در شقوق آن سيد آزاد مرد |
|
|
ماجراى كوفه را دريافت كرد |
در زباله قـصه درد آورى |
|
|
گـشت
واصل ماجراى ديگرى |
اين خبر را سرور خوبان شنيد |
|
|
پيك
او فرزند يقطر شد شهيد |
كاروان زاده خير البشر |
|
|
گشت
اندر قاع و عقبه مستقر |
كوه صحرا را همى پيمود زود |
|
|
واقصه
منزلگه بعديش بود |
بعـد از آنجا پـاى در قـرعـا گـذاشت |
|
|
منزل
بعدى مغيثه نام داشت |
بر شراف آن اشرف عالم رسيد |
|
|
خيمه
مجد و شرافت بر كشيد |
گفت برگيريد آب اى دوستان |
|
|
هم به
مركبها دهيد آب روان |
گشت ناگه منزلى ديگر عيان |
|
|
نخلها
پيدا شد از نوك سنان |
لاجرم اينك عيان شد ذى حسم |
|
|
پيش
پاى زاده خيرالامم |
حر در اينجا راه بر احرار بست |
|
|
صحبت
اهل طريقت را شكست |
اندر آن برخورد، آن قوم لئيم |
|
|
روبرو
گشتند با خلق عظيم |
پس حسين آن تشنگان را آب داد |
|
|
پرده
از اهداف سير خود گشاد |
چون غلامى حر ستاده در برش |
|
|
با
ادب دادى جواب سرورش |
بر نماز ظهر چون آن مقتدا |
|
|
بست
قامت جمله كردند اقتدا |
كاروان تا بيضه پيمودند راه |
|
|
جمله
را سوى حسين گوش و نگاه |
باز فرزند على لب باز كرد |
|
|
بازگو
با محرمانش راز كرد |
گفتنش اى پور دخت مصطفى |
|
|
جان
مادر مقدمت بادا فدا |
بهترين پروانه شمع حرم |
|
|
اى
صفا و مروه از تو محترم |
اى جهانى را تو پنجم رهنما |
|
|
طاعتت
با امر حق واجب به ما |
جمله ياران به گرد آن حبيب |
|
|
بار
بگشودند آنگه در عذيب |
همچنان آنكاروان بودى روان |
|
|
سوى
مقصد با حدى ساربان |
اشتـر مـن تـرس بر دل ناروا است |
|
|
راكبت
اينكه شقيق مجتبى است |
اين حسين است و امام بن الامام |
|
|
كفر
از او نابود و دين از او تمام |
اى خداى مالك هر نفع و ضرّ |
|
|
ياورى
كن اى خداى دادگر |
خوار كن يا رب يزيد بى حيا |
|
|
خورده
اندر دامن فحشا غذا |
راه او آنگه به اقساس اوفتاد |
|
|
با
شتاب آن را پشت سرنهاد |
منزل عين الرّهيمه چون رسيد |
|
|
مرد
كوفى را به وقت ظهر ديد |
قصر ابنا مقاتل بعد از آن |
|
|
گشت
منزلگاه بر آن كاروان |
اى دريغا اندر اين منزل به او |
|
|
شد
عبيد الله جعفى روبرو |
داد پندش ليك بى حاصل فتاد |
|
|
داد
سوگندش ولى سودش نداد |
لحظه اى ننمود حرّ او را رها |
|
|
بست
ره بر روى سبط مصطفى |
گـفـت بگـذاريد تـا بهر نزول |
|
|
جاى
امـنى يابد اين آل رسول |
داد پاسخ حر به آن خيرالانام |
|
|
در
بيابان بايدت كردن مقام |
پـس حسين پرسيد اين صحرا كجاست |
|
|
پاسخش
دادند نامش نينوا است |
چون شنيد عقر است نام ديگرش |
|
|
استعاذت كرد سوى داورش |
نام ديگر غير عقر و نينوا |
|
|
هست
اينجا را به نام كربلا |
آرى اينجا سرزمين كربلاست |
|
|
بار
بگشائيد كاينجا آشنا است |
بار بگشائيد پايان ره است |
|
|
سالكان را آخرين منزلگه است |
نى خـطا شد آخـرين مـنزل نبود |
|
|
اشتـران را پـاى اندر گل نبود |
گرچه سيرش ظاهرا در خاك بود |
|
|
باطنا
چون شمس بر افلاك بود |
كشتى قلبش بدون اضطراب |
|
|
بود
هر دم در دنوّ و اقتراب |
اندر اين معراج آن با عزّ و جاه |
|
|
كس
نداند تا كجا پيمود راه |
جمله همراهان بخون كردند رنگ |
|
|
دامن
و سجاده خود بى درنگ |
قـافـله سالارشان نبود |
|
|
بى
خـبر از راه و از منزل نبود |
عالمى را سوى حق شد رهنمون |
|
|
گفت
چون : انّا اليه راجعون |